माता के प्रति पुत्र का कर्तव्य — जीवन के साथ और जीवन के बाद
लेखक: आलोक रंजन त्रिपाठी, ज्योतिष एवं वास्तु विशेषज्ञ, इन्दौर
माता का स्थान संसार में अद्वितीय है। वह केवल जन्म देने वाली ही नहीं, बल्कि संस्कार, स्नेह, त्याग और करुणा की मूर्ति होती है। मनुष्य के जीवन में अनेक संबंध आते-जाते हैं, परंतु माता का संबंध अनादि औ
र अनंत है। पुत्र के लिए यह संबंध केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक उत्तरदायित्व से भी जुड़ा हुआ है। इसलिए पुत्र का कर्तव्य केवल माँ के जीवनकाल तक सीमित नहीं रहता, बल्कि उनके दिवंगत होने के बाद भी चलता है। प्रस्तुत लेख में माता के प्रति पुत्र के कर्तव्यों को जीवन के साथ और जीवन के बाद विस्तृत रूप से समझाया गया है।माता के प्रति पुत्र का कर्तव्य — जीवन के साथ
1. सम्मान और आदर
पुत्र का प्रथम धर्म है कि वह अपनी माता का आदर करे। माँ का सम्मान केवल शब्दों से नहीं, बल्कि व्यवहार से भी झलकना चाहिए। ऊँची आवाज़ से बात न करना, उनकी भावनाओं का ध्यान रखना, उनके निर्णयों को महत्व देना—ये सभी सम्मान के रूप हैं।
2. सेवा और सहयोग
माँ ने बचपन में पुत्र की जितनी सेवा की, उसका प्रतिदान कोई नहीं दे सकता। परंतु पुत्र का यह कर्तव्य है कि वह माता की वृद्धावस्था, बीमारी या आवश्यकता के समय उनके साथ खड़ा रहे। उनकी दिनचर्या, स्वास्थ्य, दवाई, भोजन और मानसिक शांति—इन सबका ध्यान रखना पुत्र का प्रमुख उत्तरदायित्व है।
3. समय देना और साथ निभाना
आज की व्यस्त जीवनशैली में माता-पिता को समय देना कठिन लगता है, पर पुत्र के लिए यह अनिवार्य कर्तव्य है। माँ को केवल आर्थिक सहायता नहीं, बल्कि भावनात्मक साथ की भी जरूरत होती है। उनसे बात करना, उनके साथ समय बिताना, उनकी बातें सुनना — यह सब उन्हें मानसिक सुख और सुरक्षा देता है।
4. उनकी इच्छाओं का सम्मान
कई बार माँ अपनी छोटी-छोटी इच्छाएँ व्यक्त नहीं करतीं। पुत्र का धर्म है कि वह उनकी अनकही भावनाओं को समझे। चाहे धार्मिक यात्रा हो, घर का कोई कार्य, कोई पूजा, किसी रिश्तेदार के यहाँ जाने की इच्छा हो — इन सबका सम्मान करना माँ के प्रति सच्चा प्रेम है।
5. निर्णयों में सहभागी बनाना
घर में बड़े निर्णय — जैसे घर खरीदना, बच्चों की शिक्षा, विवाह, व्यवसाय — इन सबमें माता को शामिल करना उनके प्रति सम्मान का संकेत है। इससे उनमें अपनापन और गर्व दोनों की भावना बढ़ती है।
6. आर्थिक सुरक्षा देना
माता का जीवन सुरक्षित और सुखद रहे, यह सुनिश्चित करना पुत्र का कर्तव्य है। चाहे वे स्वयं कमाती हों या न हों, उन्हें आर्थिक सुरक्षा और स्वतंत्रता देना पुत्र की जिम्मेदारी है। इससे माँ आत्मविश्वास के साथ जीवन जीती हैं।
7. उनके स्वास्थ्य का ध्यान
नियमित स्वास्थ्य जांच, दवाइयों का ध्यान, मानसिक शांति, योग-प्राणायाम के लिए प्रेरित करना — ये सब कर्तव्य पुत्र को निभाने चाहिए। वृध्दावस्था में सबसे बड़ी जरूरत स्वास्थ्य और सहारा ही होती है।
8. उनके आत्मसम्मान की रक्षा
माता के स्वाभिमान को ठेस न पहुँचे, इसका ध्यान पुत्र को विशेष रूप से रखना चाहिए। उनके कामों की तुलना किसी और से न करना, उनकी कमजोरियों का उपहास न करना और उन्हें परिवार में सर्वोच्च सम्मान देना पुत्र का नैतिक धर्म है।
माता के प्रति पुत्र का कर्तव्य — जीवन के बाद
माता के दिवंगत होने के बाद भी उनका स्थान पुत्र के जीवन से मिटता नहीं है। भारतीय संस्कृति में कहा गया है कि “माता केवल शरीर से दूर होती है, आत्मा से नहीं।” इसलिए कुछ महत्वपूर्ण कर्तव्य जीवन के बाद भी निभाए जाते हैं।
1. उनकी स्मृति का सम्मान
माता की स्मृतियों को सम्मान देना—उनकी तस्वीर, उनकी वस्तुएँ, उनकी पसंद—इन सबको स्नेहपूर्वक संभालना पुत्र के भावनात्मक कर्तव्यों में आता है। स्मृतियाँ दुख नहीं, प्रेरणा बनें—यह दृष्टिकोण रखना चाहिए।
2. संस्कारों को आगे बढ़ाना
माँ अपने जीवन में जो संस्कार देती है, वे उनके बाद भी पुत्र के चरित्र में जीवित रहते हैं। उनकी सीख, नियम, धार्मिकता, दया, अनुशासन—इन सबको जीवन में उतारना ही माता के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है।
3. पितरों का सम्मान और श्राद्ध
भारतीय संस्कृति में माता-पिता के लिए पितृ कर्म, श्राद्ध, तर्पण आदि को अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। पुत्र का यह पवित्र कर्तव्य है कि वह विधि-विधान से उनका श्राद्ध करे। इससे न केवल उनकी आत्मा को शांति मिलती है बल्कि यह पुत्र की सांस्कृतिक जिम्मेदारी भी है।
4. उनके अधूरे कार्यों को पूरा करना
माँ के मन में जीवनभर कुछ इच्छाएँ अधूरी रह जाती हैं—जैसे किसी रिश्तेदार की मदद, किसी धार्मिक कार्य में योगदान, किसी बच्चे की शिक्षा। पुत्र को चाहिए कि वे उन अधूरी इच्छाओं को पूरा करने का प्रयास करे। यह उनके प्रति सच्चा प्रेम और कर्तव्य कहा जाता है।
5. परिवार को जोड़े रखना
अक्सर माता ही परिवार को जोड़े रखती है। उनके जाने के बाद यह जिम्मेदारी पुत्र पर आती है। परिवार में सद्भाव बनाए रखना, भाई-बहनों का सम्मान करना और वंश के संस्कारों को जीवित रखना—यह सब माता के प्रति श्रद्धांजलि का ही रूप है।
6. समाज में उनकी प्रतिष्ठा बनाए रखना
माँ की सामाजिक छवि उनकी जीवनभर की पूँजी होती है। पुत्र का यह धर्म है कि वह ऐसा कोई काम न करे जिससे माता की प्रतिष्ठा को हानि पहुँचे। समाज में उनके नाम को सम्मान से आगे बढ़ाना पुत्र का नैतिक दायित्व है।
7. उनके कार्यों का परोपकार में विस्तार
यदि माता दयालु, सेवा-भावी, धार्मिक या दानशील थीं, तो उनकी स्मृति में पुत्र भी कुछ परोपकारी कार्य कर सकता है—जैसे भोजन वितरण, पौधारोपण, गरीबों की सहायता, गौ-सेवा, मंदिर में योगदान इत्यादि। यह माँ की आत्मा को संतुष्टि देता है।
निष्कर्ष
माता का प्रेम केवल जन्म देने का नहीं, बल्कि जीवन देने का प्रेम है। पुत्र चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो जाए, माँ की छाया हमेशा उसके सिर पर रहती है। इसलिए पुत्र का कर्तव्य जीवन के हर चरण में माता के प्रति सर्वोच्च सम्मान, सेवा और प्रेम रखना है। और जब वे इस संसार से चली जाती हैं, तब भी उनके संस्कार, उनकी स्मृतियाँ और उनकी इच्छा को आगे बढ़ाकर उन्हें आध्यात्मिक शांति देना पुत्र का परम धर्म है।
माता के प्रति यह समर्पण केवल कर्तव्य नहीं, बल्कि जीवन का सर्वोच्च पुण्य है।
— आलोक रंजन त्रिपाठी
ज्योतिष एवं वास्तु विशेषज्ञ, इन्दौर
(संपर्क: 8319482309 | Email: alokjitripathi@gmail.com | Blog: alokranjantripathi.in)
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