नववर्ष का संकल्प – एक हास्य व्यंग्य प्रेरक कहानी
✍️ लेखक: आलोक रंजन त्रिपाठी
ज्योतिष एवं वास्तु एक्सपर्ट | क्रिएटिव राइटर
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मुहल्ले के लोग बड़े दिनों से सोच रहे थे कि इस बार नए साल पर कुछ नया करेंगे। पिछले साल भी ऐसा ही सोचा था, उससे पिछले साल भी, और उससे भी पिछले साल... पर हुआ क्या?
रवि ने संकल्प लिया था– "सुबह 5 बजे उठूँगा"।
अगले दिन अलार्म बजा तो उसने घड़ी को घूरकर कहा— “अच्छा, 5 बजे अभी हो रहे हैं? लगा तो 2 बजे की घंटी है।” और फिर घड़ी को कंबल में लपेटकर दोबारा सो गया।
सीमा ने कहा था— "मीठा कम खाऊँगी"।
पहले दिन शक्कर चाय से कम की, दूसरे दिन शक्कर तो कम की लेकिन साथ में दो समोसे और एक गुलाब जामुन खा लिया। तीसरे दिन बोली—
“चलो, मीठा कम खाना अभी से नहीं, अगले सोमवार से।”
उसी मोहल्ले में रहता था नरेंद्र मिश्रा—जो बड़े गर्व से हर साल एक डायरी खरीदता और पहले पन्ने पर मोटे अक्षरों में लिखता—
“इस वर्ष जीवन बदलूँगा।”
फिर पूरा साल डायरी अलमारी में बदलती रहती—ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर।
अबकी बार उसने तय किया कि जीवन सच में बदलना है।
पत्नी ने भी चेतावनी दे दी—
“इस बार अगर संकल्प नहीं निभाया न… तो डायरी को चटनी पीसने के नीचे रख दूँगी।”
मिश्रा जी को भविष्य अंधकारमय दिखा, इसलिए गंभीर होना पड़ा।
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मुहल्ले की मीटिंग – संकल्प सम्मेलन
नए साल का पहला रविवार था। सबने चहा-नमकीन के साथ एक बैठक रखी।
मुख्य एजेंडा — “इस बार संकल्प कैसे निभाएँ?”
गुप्ता जी बोले—
“संकल्प निभाना हो तो सोशल मीडिया पर घोषणा करो। हजार लोग देखेंगे तो निभानी पड़ेगी।”
शर्मा जी बोले—
“अरे! घोषणा करेंगे तो लोग रोज़ पूछेंगे— निभा लिया? कम खाया? दौड़ लगाई? चिढ़ हो जाएगी।”
तिवारी जी बोले—
“मेरे हिसाब से संकल्प छोटा रखो। जैसे– दिन में एक बार मुस्कुराऊँगा। मुस्कुराना फ्री है।”
सब हँस पड़े। रवि बोला—
“ठीक है, मैं रोज़ सुबह 7 बजे उठूँगा... लेकिन अगर ठंड ज्यादा हो गई तो 8 भी ठीक है… 8:30 भी चल सकता है।”
सब तालियों में हँस पड़े। यह बैठक व्यंग्य का सभा-भवन बन चुकी थी।
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नया साल – नई शुरुआत (जिनकी शुरुआत कुछ घंटों में खत्म हो गई)
1 जनवरी की सुबह।
पूरा मोहल्ला “न्यू ईयर मोटिवेशन” से भरा हुआ।
वाट्सएप स्टेटस पर— "नया साल, नई सोच, नया मैं।"
मिश्रा जी भी सुबह 5:55 बजे उठ बैठे।
पत्नी खुश— “लगता है इस बार सच में बदलाव होगा!”
मिश्रा जी ने योगा मैट निकाली, पैर मोड़े और 10 मिनट तक गहरी साँसें लीं।
फिर सोचा—
“इतना योग काफी है, शरीर को धीरे-धीरे सुधारना चाहिए।”
और 6:20 पर दोबारा कम्बल ओढ़कर सो गए।
दोपहर में लोकल पार्क में लोग जॉगिंग कर रहे थे।
तीन दिन तक सब अनुशासन में रहे।
तीसरे दिन गुप्ता जी का पैरों में दर्द हुआ, चौथे दिन बारिश हुई, पाँचवे दिन क्रिकेट मैच, छठे दिन भाभी का जन्मदिन और सातवे दिन सब पुरानी दिनचर्या में वापिस।
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परिवर्तन कहाँ फिसल जाता है?
इसी दौरान मोहल्ला क्लब में एक छोटा सा आयोजन हुआ।
विषय था— “संकल्प कैसे निभाएँ?”
वक्ता ने कहा—
1. संकल्प बड़ा नहीं, यथार्थवादी होना चाहिए
2. शुरुआत छोटी हो, पर नियमित हो
3. लक्ष्य के बजाय आदत पर ध्यान दें
4. अपने से तुलना करें, दूसरों से नहीं
फिर उसने एक बात कही जो सबके दिल को लगी—
“नया साल वह नहीं बदलता जो कैलेंडर में बदला जाए,
नया साल वह है जिसमें आप खुद बदलने लगें।”
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मिसाल बनी एक छोटी आदत
इस बार मिश्रा जी ने बड़ा लक्ष्य नहीं रखा।
उन्होंने तय किया—
“हर सुबह 10 मिनट टहलूँगा और हर रात 10 मिनट पढ़ूँगा।”
पहले हफ्ते 10 मिनट हुए।
दूसरे हफ्ते 15।
तीसरे महीने वह रोज़ 30 मिनट टहलने लगे।
सीमा ने मिठाई कम करने के बजाय तय किया—
“एक दिन छोड़कर मिठाई।”
धीरे-धीरे वह सप्ताह में केवल दो बार पर आ गई।
रवि ने 5 बजे नहीं तो 7 बजे उठना शुरू किया।
एक साल में उसने एक ब्लॉग शुरू कर दिया।
और मोहल्ला?
अब लोगों के संकल्प फेसबुक पर नहीं,
उनके व्यवहार में दिखाई देने लगे।
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निष्कर्ष
नया वर्ष जादुई छड़ी नहीं,
पर यह नया अवसर जरूर है।
संकल्प टूटना मज़ाक बन सकता है,
पर निभ जाए तो जीवन बदल जाता है।
बड़ी प्रतिज्ञाओं से नहीं,
छोटी आदतों से इतिहास बनता है।
और यही नववर्ष का वास्तविक संदेश है—
उम्मीद रखो, शुरू करो, छोटे कदम भरो…
लगातार चलते रहो।
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✍️ लेखक परिचय:
आलोक रंजन त्रिपाठी
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