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सृजन सुगंध साहित्य गोष्ठी

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आलोक रंजन  सृजन सुगंध साहित्यिक एवं सामाजिक संस्था इन्दौर के साहित्यिक पेज परऑनलाइन गोष्ठी का आयोजन किया गया। जिसमें देश के सभी वरिष्ठ साहित्यकारों को आमंत्रित किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता हरिद्वार से पधारे वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय रमेश रमन जी ने किया। विशिष्ट अतिथि मुंबई से पधारे श्री सागर त्रिपाठी जी विशिष्ट स्थिति छतरपुर दिल्ली से पुष्प लता राठौड़ जी विशिष्ट अतिथि हरियाणा से सोनिया अक्स सोनम जी थी। कार्यक्रम का सुंदर संचालन रायगढ़ छत्तीसगढ़ से अंजना सिन्हा जी ने किया। साहित्य पटल के संस्थापक आलोक रंजन जी ने सभी का आभार माना। गीत और ग़ज़ल की यह संध्या शाम 5:00 बजे से शुरू करके 8:00 बजे तक निर्वाध गति से लगातार चलती रही। ऑनलाइन जुड़े हुए दर्शकों का अपार स्नेह मिला सभी ने अपनी प्रतिक्रिया गीत ग़ज़लों पर खुलकर के दिया कार्यक्रम बहुत सफल रहा 2000 से अधिक दर्शकों ने इस कार्यक्रम को देखा और अपनी प्रतिक्रिया देकर के सृजन सुगंध साहित्य पेज को आशीर्वाद दिया सृजन सुगंध साहित्यिक संस्था समय-समय पर कुछ विशेष विषय पर साहित्यिक मित्रों को आमंत्रित करते रहती है जिसमें देश के वरिष्ठ गीतकार औ...

गीत

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ये कैसा श्रृंगार नहीं आचार रहा जीवन में रिश्तो का हर मोड़ यहां बेकार रहा जीवन में व्यवहारिक बातों का के हर पहलू में नीरसता छाई पारदर्शिता रही नहीं व्याकुलता मन में क्यों छाई उनसे दूर हुए जिनका उपकार रहा जीवन में ये कैसा,,,,,,, प्रेम कहां अब श्रद्धा से नतमस्तक हो पाता है शिष्टाचार कहां अब दिल में दस्तक दे पाता है अपने अपने स्वार्थ का संसार रहा जीवन में ये कैसा,,,,, कलुषित मन का बोझ लिए मानव फिरता रहता है कैसे करें परिष्कृत मन को यह सोचा करता है नहीं यहां अब अपनों का ही प्यार रहा जीवन में ये कैसा,,,,, आलोक रंजन इंदौरवी

प्रिय हम थे पहली बार मिले

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*मिलन गीत* प्रिय, हम  थे  पहली  बार मिले ! सूनी   संध्या   एकान्त    पहर  सहसा तुम  दो  पल  गए ठहर  नदी   नदी   तुम   लहर  लहर  नभ   में   तारों  के  दीप  जले .. प्रिय, हम  थे पहली  बार मिले ! बेसुध   यौवन, चंचल  पायल  विस्मित लोचन, छूटा आंचल  अलकों का फैला घन श्यामल  तरु  शाखाओं  के  मौन  तले.. प्रिय, हम  थे पहली  बार  मिले ! विस्मय  विभोर, नीरव  निश्चल  लख  कर  मेरी  वेदना  विकल  झरने  से   उमड़े  नयन  सजल  सपने  आशा  के सुमन  खिले.. प्रिय ,हम थे पहली  बार  मिले..! छबि  उजली  सी  छहर  छहर  आकुल मानस  में  लहर लहर  क्रूर  समय   का   क्रूर  कहर ! सच में थे अंतिम  बार   मिले ? प्रिय, हम थे पहली ...

ज़माने की रविश के साथ तुम बहती नदी निकले।

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ज़माने की रविश के साथ तुम बहती नदी निकले, बहुत उम्मीद थी तुमसे मगर तुम भी वही निकले। हर इक शय पर वो क़ादिर है अगर उसकी रज़ा हो तो, चराग़ों से उठे ख़ुश्बू गुलों से रौशनी निकले । किसी को बे वफ़ा कहने से पहले सोच भी लेना, कहीं ऐसा न हो इसमें तेरी अपनी कमी निकले। जिसे देखे ज़माना हो गया इस आख़री पल में , नज़र आ जाए वो चेहरा तो दिल की बेकली निकले। जहाँ शीशे का दिल देखा वहीं को हो लिए सारे, तुम्हारे शह्र के पत्थर बड़े ही पारखी निकले । वफ़ा की राख दरिया में बहा आओ कि फिर उसमें, कहीं ऐसा न हो फिर कोई चिंगारी दबी निकले। शिखा नक़्क़ाद के मीज़ान पर थी जब ग़ज़ल मेरी, रदीफ़ ओ क़ाफ़िया औज़ान सब बिल्कुल सही निकले। दीपशिखा-

दर्द की चादर लपेटे सो रहा है आदमी

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दर्द की चादर लपेटे, सो रहा है आदमी। आँख में आँसू नहीं पर, रो रहा है आदमी।। अब तो बोझिल हो गए हैं, दर्द के रिष्ते सभी, बोझ रिष्तों का मगर, क्यूँ ढो रहा है आदमी। जिस्म तो बेदाग है, पर रूह मैली हो गई, दाग दिल के आँसुओं से, धो रहा है आदमी। नफ़रतों का ज़हर देता है, दवा के नाम पर, खुद की राहों में ही काँटे, बो रहा है आदमी। आज के इस दौर में बस चन्द सिक्कों के लिए, दौलत-ए-ईमान अपनी खो रहा है आदमी। - गोविन्द भारद्वाज, जयपुर Mob- 9214054053

इस ज़मीं पर चांद को तुम क्यूं बुलाना चाहते हो। आलोक रंजन इन्दौरवी

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इस ज़मीं पर चांद को तुम क्यूं बुलाना चाहते हो। जिसका सर ऊंचा है उसको क्यूं झुकाना चाहते हो।। तुम कभी तफ्तीश से पूरी कहानी सुन तो लो। गुफ्तगू के सिलसिले को क्यूं मिटाना चाहते हो।। फ़र्ज़ तुम अपना निभाओ और बातें छोड़ दो। बेवजह  झगड़े की सूई क्यूं घुमाना चाहते हो।। हर क़दम तेरा ज़मीं पर हो इसे तुम देखना । शान झूठी इस जहां को क्यूं दिखाना चाहते हो।। हर ख़ताएं तो तुम्हारी डायरी में दर्ज हैं । रोज़ ही उस पर ज़िरह फिर क्यूं कराना चाहते हो।। बांटकर के जिम्मेदारी काम कुछ हल्का करो। अपने सर पे बोझ ज्यादा क्यूं उठाना चाहते हो।। आलोक रंजन इन्दौरवी

ओ मेरे अनथके सपन तुम युग का परिवर्तन बन जाना।

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*निर्मल गीत* ओ मेरे अनथके सपन तुम,युग का परिवर्तन बन जाना ! कितने  स्वप्न  हो  गए  खण्डित, कितनों   की   दी   गई   दुहाई. कुछ   सो    गए  अबोले  भोले,  कुछ  ने   रो  रो   रात   बिताई.. कफ़न बांधकर  निकलो तो,युग का संघर्षण बन जाना ! ओ मेरे अनथके सपन ....! जिन्हें  विरासत  मिली  दुखों की,  सुख   की  परिभाषा  क्या  जानें? सीमित   जिनकी    अभिलाषाएं,  हामिद– चिमटा   लगे     सुहाने. तुम  सूखे  प्यासे  प्राणों  में,सुख का संवर्धन बन जाना ! ओ मेरे अनथके सपन....! प्रीति   बिक   रही   बाजारों  में,  जिसको   देखो,  हुआ  दिवाना. भीतर     बाहर,    आँखें   मींचे   बुने    निराशा    ताना    बाना. तुम आशा के दीप जलाकर,...

ख्वाबों के मौसम भी कितनें होते हैं। खुशियों के आलम भी कितनें होते हैं।।

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ख़्वाबों के मौसम भी कितने होते हैं ख़ुशियों के आलम भी कितने होते हैं  उसके जैसा कोई और कहां होगा वैसे तो हमदम भी कितने होते हैं  दिल के तारों में झंकार हुई जबसे दिल समझा सरगम भी कितने होते हैं  जिनको दिल कह करके आहें भरता है  ऐसे दर्द ए ग़म  भी कितने होते हैं छूकर कभी बुलंदी को जानोगे तुम इज्ज़त के परचम भी कितने होते हैं आलोक रंजन इंदौरवी

कैसे हुआ पांडवों का जन्म आइए जानते हैं।

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कैसे हुआ पांडवों का जन्म -------------------------------- पांचो पांडवो का जन्म भी बिना पिता के वीर्य के हुआ था। एक बार राजा पाण्डु अपनी दोनों पत्नियों – कुन्ती तथा माद्री – के साथ आखेट के लिये वन में गये। वहाँ उन्हें एक मृग का मैथुनरत जोड़ा दृष्टिगत हुआ। पाण्डु ने तत्काल अपने बाण से उस मृग को घायल कर दिया। मरते हुये मृग ने पाण्डु को शाप दिया, “राजन!  तुम्हारे समान क्रूर पुरुष इस संसार में कोई भी नहीं होगा। तूने मुझे मैथुन के समय बाण मारा है अतः जब कभी भी तू मैथुनरत होगा तेरी मृत्यु हो जायेगी।” इस शाप से पाण्डु अत्यन्त दुःखी हुये और अपनी रानियों से बोले, “हे देवियों! अब मैं अपनी समस्त वासनाओं का त्याग कर के इस वन में ही रहूँगा तुम लोग हस्तिनापुर लौट जाओ़” उनके वचनों को सुन कर दोनों रानियों ने दुःखी होकर कहा, “नाथ! हम आपके बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकतीं।  आप हमें भी वन में अपने साथ रखने की कृपा कीजिये।” पाण्डु ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर के उन्हें वन में अपने साथ रहने की अनुमति दे दी। इसी दौरान राजा पाण्डु ने अमावस्या के दिन ऋषि-मुनियों को ब्रह्मा जी के दर्शनों के लिये जात...

दोस्ती के दायरे में नफ़रतों की बू न होये दुवा करना किसी की आंख में आंसू न हो

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पेश है इक पुरानी ग़ज़ल ,,,,,, दोस्ती  के  दायरे में   नफ़रतों  की  बू  न  हो ये दुवा करना किसी की आंख में आंसू न हो ज़िंदगी के हर क़दम पर प्यार ही क़ायम रहे इक मुहब्बत के सिवा बस कोई आरजू ना हो आशिकी करने की ज़ुर्रत करना भी बेकार है गर तुम्हारे दिल  में कोई हुस्न की ख़ुशबू ना हो कौन इज्ज़त दे सकेगा तुमको अपने दिल में अब जब तुम्हारी सोच में उसकी ही आबरू ना हो ज़िंदगी जब खिलखिला हट मुस्कुराहट छीन ले और भी बढ़ जाता गम जब दोस्त का पहलू न हो आलोक रंजन इंदौरवी

आंखों से कुछ अश्क़ निकालना बाक़ी है।

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आंखों से कुछ अश्क़ निकलना बाक़ी है। जीवन  की  रफ़्तार  बदलना  बाक़ी है।। जो भी मुल्य चुकाया है तुमने अब तक। अंगारों  पर  फिर  भी  चलना बाक़ी है।। क्या पाया क्या खोया कुछ तो याद करो। स्मृतियों   में   जीना   मरना   बाक़ी है।। दौलत  कौन  तुम्हें  मिल  पाई  है ऐसी। खाली   हाथों   को   तो  मलना बाक़ी है।। इच्छाओं   की   गठरी   खुलती जायेगी। गिर  गिर करके और फिसलना बाक़ी है।। बाजारों  की  भीड़  से  जब  भी निकलोगे। तनहाई    में    ज़िंदा  रहना  बाक़ी है।। मौक़े  तो   आये   होंगे   फिर आयेंगे। रंजन  सच्ची   राह  पकड़ना  बाक़ी है।। आलोक रंजन इन्दौरवी

किसी मुकाम पर चलकर चलो पुकार करें

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किसी मकाम पे चलकर चलो पुकार करें बड़ा रंगीन है मौसम तो इसमें प्यार करें नज़र लगे न कोई रंग भरे मौसम को इसी ख़ुशी में मुहब्बत का इंतजार करें अगर ख़ता है मुहब्बत तो बता दें सबको यहां के लोग ख़ता ऐसी बार बार करें जुल्म सहकर जो मुहब्बत को बचा पाये हैं उन्हीं का जिक्र यहां हम भी एक बार करें कभी तो हम भी पहुंच जायेंगे मंजिल अपनी करो न देर चलो रास्ते तो पार करें आलोक रंजन इंदौरवी

ग़ज़ल आलोक रंजन इन्दौरवी

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बहुत बड़ा कहलानें से क्या होता है। ख़ुद का खून जलानें से क्या होता है।। अपना पंख जलाकर जो जिंदा भी हो । ऐसे भी परवानें से क्या होता है।। मन का मैल नहीं धुल पाया है अब तक। सौ सौ बार नहानें से क्या होता है।। थर्म कर्म का मर्म अगर नहीं समझे। मंदिर मस्जिद जानें से क्या होता है।। मर्यादा सम्मान गुणों से मिलता है। झूठा ओहदा पानें से क्या होता है।। मेहनत से तो कोसों दूर रहे अब तक। घर बैठे पछतानें से क्या होता है।। व्रत पूजा से निर्मल मन तो हुआ नहीं। कंद मूल फल खानें से क्या होता है।। आलोक रंजन इन्दौरवी

ग़ज़ल आलोक रंजन इन्दौरवी

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कौन किसके दिल में ढल जाएगा तुमको क्या पता।  वक्त का पंछी निकल जायेगा तुमको क्या पता।। मंजिलें हैं दूर आंखों में झलकती जा रही। ये मुसाफिर दूर चल जायेगा तुमको क्या पता।। उलझनों में देर तक उलझे रहे तो हो न हो। उम्र का पहिया निकल जायेगा तुमको क्या पता।। जिस जहां को खूबसूरत देखते हो आज तुम। उसका नक्शा कल बदल जायेगा तुमको क्या पता।। सब नशे में चल रहे हैं काफ़िले तो देखिए। कौन जानें कब संभल जायेगा तुमको क्या पता।। तुम मगरमच्छों को दाना डालकर खुश रहे । क्या पता तुमको निगल जायेगा तुमको क्या पता।। मोम का दिल है मेरा पत्थर नहीं समझो इसे। एक आंसू पर पिघल जायेगा तुमको क्या पता।। आलोक रंजन इन्दौरवी

मूलांक एक अर्थात जिनका जन्म किसी भी महीने में 1,10,19,28 तारीख को हुआ है उनके बारे में कुछ ख़ास बातें

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  जिन लोगों का जन्म किसी भी महीने की 1, 10, 19, या 28 तारीख को होता है, उनका मूलांक 1 होता है . इन लोगों के बारे में कुछ खास बातें:  - मूलांक 1 वाले लोगों के स्वामी ग्रह सूर्य होते हैं. सूर्य को ऊर्जा और भाग्य का कारक माना जाता है.  ये लोग आत्मविश्वासी, आशावादी, और लक्ष्य के प्रति अडिग होते हैं.     ये लोग अपनी बात पर अडिग रहते हैं और स्वतंत्र सोच रखते हैं.     ये लोग किसी के अधीन काम करना पसंद नहीं करते.     ये लोग निडर, साहसी, और स्वाभिमानी होते हैं.     ये लोग जीवन में आने वाली कठिनाइयों से नहीं घबराते.     ये लोग ईमानदार होते हैं और सही निर्णय लेने में सक्षम होते हैं.     ये लोग उच्च शिक्षा प्राप्त करते हैं.     इन लोगों के लिए रविवार और सोमवार शुभ दिन माने जाते हैं.     इनके लिए पीला या सुनहरा पीला रंग शुभ माना जाता है.     इनके लिए 1, 10, 19, या 28 तारीख शुभ मानी जाती हैं.     इन लोगों को  सूर्य की पूजा करनी चाहिए.    

ग़ज़ल बेतकल्लुफ़ जिंदगी अच्छी नहीं आलोक रंजन इन्दौरवी

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बेतकल्लुफ  ज़िंदगी  अच्छी नहीं। इश्क़  में  आवारगी   अच्छी नहीं।। हर किसी का हक़ मिले हरदम उन्हें। साथ  उनके  ज्यादती अच्छी नहीं।। ख़ाक में इज़्ज़त मिलाकर क्यूं रहें। ऐसी  भी  दीवानगी  अच्छी  नहीं।। फ़ायदा   कोई  उठाए   आपका। इस क़दर शाइस्तगी अच्छी नहीं।। हर क़दम बस प्यार ही क़ायम रहे। यूं भी सबसे बेरुखी अच्छी नहीं ।। आलोक रंजन इंदौरवी

ग़ज़ल पसीना जब बहाकर ज़िंदगी को तुम दिशा दोगे।आलोक रंजन इन्दौरवी

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पसीना जब बहाकर ज़िंदगी को तुम दिशा दोगे। सफ़र आसान होगा गुरबतों को तुम मिटा दोगे।। कोई मंजिल नहीं होगी जो हासिल कर न पाओ तुम। ज़मीं पर आसमां को हाथ में लेकर झुका दोगे।। तुम्हारा फ़र्ज़ जो भी है उसे दिल जान से करना। न होगा कुछ भी नामुमकिन कसम गर तुम उठा लोगे।। हजारों आंख है उसकी नज़र दुनियां से बेहतर है। हजारों कोशिशें करके भी उससे क्या छुपा लोगे।। कोई मासूम दरवाजे पे भूखा आ गया दिखता। तुम्हारा पुन्य जागेगा उसे खाना खिला दोगे।। आलोक रंजन इन्दौरवी

ब्रम्हचर्य का मूल अर्थ गीता में

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ब्रह्मचारी वीर्य रोककर रखनेवाले को नहीं कहते हैं; क्योंकि जैसे मलको रोककर नहीं रखा जा सकता है, वैसे ही इस वीर्यको भी रोककर नहीं रखा जा सकता है। युवावस्था में वीर्य को रोका ही नहीं जा सकता है और बाल्यावस्था में वीर्य का पतन हो ही नहीं सकता है - यह सब तो प्राकृतिक नियम ही होता है। इस वीर्यके विषयमें किसी भी प्रकारका अभिमान करना भी व्यर्थ ही होता है।     ब्रह्मचारीके व्रतमें स्थित रहनेवाले को ही ब्रह्मचारी कहते हैं। अर्थात् -         प्रशान्तात्मा  विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते  स्थितः।         मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः।।     ब्रह्मचारीके व्रतमें स्थित, भयरहित तथा भलीभाँति शान्त अन्तःकरणवाला सावधान योगी मनको रोककर मुझमें चित्तवाला और मेरे परायण होकर स्थित होवे।। गीता ६/१४।।     "ब्रह्मचारीके व्रतमें स्थित" होना भी यही सिद्ध करता है कि जो ब्रह्ममें स्थित रहते हैं, वही ब्रह्मचारी होते हैं।      इसीलिये ब्रह्मचारी उसी को कहते हैं; जो ब्रह्मचर्यका आचरण करते हैं। अर्थात् -       ...

ग़ज़ल जिंदगी हमनशी बन गई।

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ज़िन्दगी हमनशी बन गई।  जब हमारी ख़ुशी बन गई। मुस्कराहट पे परदा किये। सादग़ी ख़ुशनसी बन गई।। जब गुलिस्तां महकने लगा। मस्त रातें हसीं बन गई।। बहकी नज़रों से देखा मुझे। आंख ही मयक़शी बन गई।। प्यार की इन्तहा तब हुई। मौत ही ख़ुदकुशी बन गई।।       पुष्प लता राठौर