ओ मेरे अनथके सपन तुम युग का परिवर्तन बन जाना।

*निर्मल गीत*

ओ मेरे अनथके सपन तुम,युग का परिवर्तन बन जाना !

कितने  स्वप्न  हो  गए  खण्डित,
कितनों   की   दी   गई   दुहाई.
कुछ   सो    गए  अबोले  भोले, 
कुछ  ने   रो  रो   रात   बिताई..

कफ़न बांधकर  निकलो तो,युग का संघर्षण बन जाना !
ओ मेरे अनथके सपन ....!

जिन्हें  विरासत  मिली  दुखों की, 
सुख   की  परिभाषा  क्या  जानें?
सीमित   जिनकी    अभिलाषाएं, 
हामिद– चिमटा   लगे     सुहाने.

तुम  सूखे  प्यासे  प्राणों  में,सुख का संवर्धन बन जाना !
ओ मेरे अनथके सपन....!

प्रीति   बिक   रही   बाजारों  में, 
जिसको   देखो,  हुआ  दिवाना.
भीतर     बाहर,    आँखें   मींचे 
 बुने    निराशा    ताना    बाना.

तुम आशा के दीप जलाकर,जीवन आकर्षण बन जाना !
ओ मेरे अनथके सपन...!

जहां  क्षुधा  को  मिले  ताड़ना,
शोषण  जहां  खिले  फूलों सा,
अनाचार     पाए    अभिनंदन, 
सदाचार   भटके   भूलों    सा,

लेकर चक्र सुदर्शन कर में,तुम सशक्त वर्जन बन जाना !
ओ मेरे अनथके सपन...!

जब कोयल के  सुर  में  शैशव,
प्यासा   प्यासा   राग    सुनाए,
मुग्धा!   यौवन   की   दोपहरी,
विटप  छांव  पा  ताप  मिटाए,

ऐसे मस्ती  के आलम  में,नयनों  का  नर्तन  बन जाना !
ओ मेरे अनथके सपन तुम,युग का परिवर्तन बन जाना !

  गीतकार प्रमोद मिश्र "निर्मल"

टिप्पणियाँ

Usha Tripathi ने कहा…
बहुत सुंदर

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