दर्द की चादर लपेटे सो रहा है आदमी

दर्द की चादर लपेटे, सो रहा है आदमी।
आँख में आँसू नहीं पर, रो रहा है आदमी।।

अब तो बोझिल हो गए हैं, दर्द के रिष्ते सभी,
बोझ रिष्तों का मगर, क्यूँ ढो रहा है आदमी।

जिस्म तो बेदाग है, पर रूह मैली हो गई,
दाग दिल के आँसुओं से, धो रहा है आदमी।

नफ़रतों का ज़हर देता है, दवा के नाम पर,
खुद की राहों में ही काँटे, बो रहा है आदमी।

आज के इस दौर में बस चन्द सिक्कों के लिए,
दौलत-ए-ईमान अपनी खो रहा है आदमी।

- गोविन्द भारद्वाज, जयपुर
Mob- 9214054053

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मैं और मेरा आकाश

, आंखों का स्वप्न प्रेरक कहानी

नरेंद्र मोदी कर्मठ कार्यकर्ता से प्रधानमंत्री तक