गीत
ये कैसा श्रृंगार नहीं आचार रहा जीवन में
रिश्तो का हर मोड़ यहां बेकार रहा जीवन में
व्यवहारिक बातों का के हर पहलू में नीरसता छाई
पारदर्शिता रही नहीं व्याकुलता मन में क्यों छाई
उनसे दूर हुए जिनका उपकार रहा जीवन में
ये कैसा,,,,,,,
प्रेम कहां अब श्रद्धा से नतमस्तक हो पाता है
शिष्टाचार कहां अब दिल में दस्तक दे पाता है
अपने अपने स्वार्थ का संसार रहा जीवन में ये कैसा,,,,,
कलुषित मन का बोझ लिए मानव फिरता रहता है
कैसे करें परिष्कृत मन को यह सोचा करता है
नहीं यहां अब अपनों का ही प्यार रहा जीवन में
ये कैसा,,,,,
आलोक रंजन इंदौरवी
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