इस ज़मीं पर चांद को तुम क्यूं बुलाना चाहते हो। आलोक रंजन इन्दौरवी
इस ज़मीं पर चांद को तुम क्यूं बुलाना चाहते हो।
जिसका सर ऊंचा है उसको क्यूं झुकाना चाहते हो।।
तुम कभी तफ्तीश से पूरी कहानी सुन तो लो।
गुफ्तगू के सिलसिले को क्यूं मिटाना चाहते हो।।
फ़र्ज़ तुम अपना निभाओ और बातें छोड़ दो।
बेवजह झगड़े की सूई क्यूं घुमाना चाहते हो।।
हर क़दम तेरा ज़मीं पर हो इसे तुम देखना ।
शान झूठी इस जहां को क्यूं दिखाना चाहते हो।।
हर ख़ताएं तो तुम्हारी डायरी में दर्ज हैं ।
रोज़ ही उस पर ज़िरह फिर क्यूं कराना चाहते हो।।
बांटकर के जिम्मेदारी काम कुछ हल्का करो।
अपने सर पे बोझ ज्यादा क्यूं उठाना चाहते हो।।
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