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आंखों से कुछ अश्क़ निकलना बाक़ी है।

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आंखों से कुछ अश्क़ निकलना बाक़ी है। जीवन  की  रफ़्तार  बदलना  बाक़ी है।। जो भी मुल्य चुकाया है तुमने अब तक। अंगारों  पर  फिर  भी  चलना बाक़ी है।। क्या पाया क्या खोया कुछ तो याद करो। स्मृतियों   में   जीना   मरना   बाक़ी है।। दौलत  कौन  तुम्हें  मिल  पाई  है ऐसी। खाली   हाथों   को   तो  मलना बाक़ी है।। इच्छाओं   की   गठरी   खुलती जायेगी। गिर  गिर करके और फिसलना बाक़ी है।। बाजारों  की  भीड़  से  जब  भी निकलोगे। तनहाई    में    ज़िंदा  रहना  बाक़ी है।। मौक़े  तो   आये   होंगे   फिर आयेंगे। रंजन  सच्ची   राह  पकड़ना  बाक़ी है।। आलोक रंजन इन्दौरवी

भक्ति गीत कवयित्री निरूपमा त्रिवेदी

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तेरे नाम की ज्योत जलाऊं। माता कीर्तन तेरा गांऊं ।। जग जननी तुम नित्य बिहारिणि। सब सुख कारिणि दुष्ट विदारिणि। चरणों में मैं बलि बलि जाऊं माता,,,,, सारा जग है तेरी माया तुझमें सारा विश्व समाया चरणों में तेरे शीश नवाऊं माता,,,,, श्रद्धा से नतमस्तक होकर गीत सुनाती हूं मैं रोकर निशदिन महिमा तेरी गाऊं।। माता,,,, जग का रिश्ता झूठा सारा तेरे बिन है कौन सहारा चैन कहां मैं जाकर पाऊं माता,,,, करुणा की हो तुम अवतारी संकट मुक्त करो तुम भारी छोड़ तेरा दर किस दर जाऊं।। माता ,,,, निरूपमा त्रिवेदी इन्दौर

बाल कविता कवि गिरेन्द्र सिंह भदौरिया जी

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कवि "प्राण" की एक बाल कविता  ------------------------------- लाठी  ==== कुत्ता पीछे पड़ा दिखा धरती पर पटक जड़ी लाठी। प्राण बचा कर कुत्ता भागा लेकिन खड़ी पड़ी लाठी।। झुकती नहीं टूट जाती है अक्सर बहुत कड़ी लाठी। टुकड़े-टुकड़े हो जाती है कहते रहो लड़ी लाठी।। जब से टूट गई दादा की लकड़ी की तगड़ी लाठी। दादीजी मोटू से बोली ले आ नई छड़ी लाठी।। छोटू-मोटू दोनों भाई लेने चले बड़ी लाठी। धीरे-धीरे चले देखते कहाँ मिले कुबड़ी-लाठी।। बाँसों का बाजार लगा था,बिकती जहांँ छड़ी लाठी। एक परखने को हाथों में मोटू ने पकड़ी लाठी।। उन्हीं लाठियों में लोहे से देखी मूँठ जड़ी लाठी। छोटू बोला यह खरीद लो मोटू तुम तगड़ी लाठी।। छोटी नहीं मिलेगी मोटू ले लो यही बड़ी लाठी। दादा जी के लिए सहारा होती है कुबड़ी-लाठी। लाठी लेकर घर जब पहुँचे कर दी द्वार खड़ी लाठी। दादा खुश हो गए देखकर तारों से जकड़ी लाठी।। स्वरचित एवं मौलिक गिरेन्द्रसिंह भदौरिया "प्राण"  "वृत्तायन" 957, स्कीम नं. 51 इन्दौर, पिन - 452006, म.प्र. 9424044284 6265196070 ===========================

गीतिका श्रृषि श्रृंगारी पांडेय जी

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************* एक गीत *************                         *~~~* 2122 2122 2122 212=26 गीतिका छंद  मुक्ति  पथ  की चाह हो तो संग मेरे आइए।  रूप यौवन के शहर में मत मुझे भरमाइए।। ● मैं  उपासक और याचक हूँ भले श्रंगार का। नेह  भीगे  लोचनों का सृजन के संसार का।। सृष्टि के उद्गम चरण की व्यंजनायें साध कर, जिन्दगी का गीत मधुरिम गा सको तो गाइए।। ● प्रेम  का अनुवाद बोलो कौन है जो कर सका। आत्मा के सूक्ष्म घट को कौन है जो भर सका। क्या असम्भव और सम्भव का विवेचन ठीक है, इस पहेली को अगर सुलझा सको सुलझाइए।। ● देह  की  मैली  शिला  पर वासना का बास है। काम की सकरी गली में अनबुझी सी प्यास है।। कुम्भ  में उतरो कभी जो बुद्ध का दर्शन करो,  चुन समाधी की डगर आनन्द मठ पा जाइए।। ● घोर  तम होने से पहले लौट अपने घर चलें। दिव्यता का दीप सत की देहरी पर धर चलें।। एक अनजानी गुफा के द्वार पर मिलना मुझे  मैं  वहीं  बैठा  मिलूँगा  मीत  मत  घबराइए।। ●● ...

ग़ज़ल मशहूर कवयित्री वंदना विनम्र जी

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ग़ज़ल  चीख कर ये दीवारें कहें, कान मुझसे हटा दीजिए। हम कहां तक सुने चुगलियां, आप हमको बता दीजिए।। कहते दीवारों के कान हैं,पर ये दीवारें बेजान हैं। क्यों ये इल्जाम हम पर लगा,है गुजारिश हटा दीजिए।। है शिकायत बहुत जिनसे भी,रूबरू होके कह न सके। छोड़िए बैर और दुश्मनी,अपने है न सजा दीजिए।। इस तरह मत करो जुल्म भी , आप करते रहो हम भरें। थोड़ी इंसानियत सीखकर, आप खुद को जगा दीजिए।। आप बंटवारे करते रहे, खीच आंगन में दीवार को। क्या किया हमने बदनाम हम,इसका उत्तर ज़रा दीजिए।। मैं हूं दीवार रक्षा करूं, घर किसी का भी फोड़ा नहीं। मैं अगर हूं गुनहगार तो,आप मुझको गिरा दीजिए।। जोड़कर हाथ कहती हूं मै, सबके घर में ही रहती हूं। कुछ हमने सुना ही नहीं,आप सबको बता दीजिए।। कान मुझमें अड़ाते रहें, और कीले गड़ाते रहें। कान दीवारों के होते है,आज भ्रम ये मिटा दीजिए।। सुन लो दीवारें हंसने लगीं,तंज इंसा पे कसने लगीं। आपको भी तो सच है पता,अब न खुद को दगा दीजिए ।। वंदना विनम्र जबलपुर म प्र

ग़ज़ल मशहूर कवयित्री वंदना विनम्र जी

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ग़ज़ल  दे दिया तुमने दग़ा तो अब सगा किसको कहे। तू बसा रग- रग में मेरी बेवफ़ा किसको कहे।। इश्क़ के हकदार वो ही जो तेरे अपने रहे। मर गई संवेदनायें फिर जगा किसको कहे।। ये तमाशा बन्द कर दे रहने दे तन्हा  मुझें। घाव तुमने दे दिए मरहम लगा किसको कहे।। जिंदगी में दर्द थे तेरी मोहब्बत थी दवा। उस दवा में भी मिलावट अब दवा किसको कहे।। टूट जाये दिल अगर तो जोड़ पाता धन नहीं। हानि रिश्तो से मिली है फलसफ़ा किसको कहे।। टूटकर चाहा था उसको काँच से  बिखरे है हम। हो गए बर्वाद ऐसे क्या बचा किसको कहे।। प्यार के पिंजरे से चाहत के परिंदे उड़ गए। अश्क़ से तर आँखों का भी रतजगा किसको कहे।। इश्क़ में मिलता दगा है था पता फिर भी किया। ये ख़ता खुद ही हमारी तू बता किसको कहे।। वंदना विनम्र जबलपुर म प्र 

ग़ज़ल सुशील साहिल जी

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तेरी  दोस्ती  के  फ़साने  बहुत  हैं निगाहों के लेकिन निशाने बहुत हैं تری  دوستی کے فسانے  بہت ہیں  نگاہوں کے لیکن نشانے  بہت ہیں नए मसअलों को न आवाज़ दीजे उलझने की ख़ातिर पुराने बहुत हैं نئے مسئلوں کو نہ اواز دیجئے  الجھنے کی خاطر پرانے بہت ہیں गुलिस्तां में शाख़ों की बस इक कमी है मगर   उल्लुओं   के   घराने  बहुत   हैं گلستاں میں شاخوں کی بس اک کمی ہے  مگر اللوں  کے گھرانے بہت ہیں उलटिये नहीं हांडी के सारे चावल परखने को थोड़े ही दाने बहुत हैं الٹے نہیں ہانڈی کے سارے چاول  پرکھنے کو تھوڑے ہی دانے بہت ہیں तेरे पास हैं मुजरिमों की क़तारें मेरे पास भी क़ैद-ख़ाने बहुत हैं ترے پاس ہیں مجرموں کی قطاریں  مرے پاس بھی قید خانے بہت ہیں सिन-ओ- साल मेरे ज़ियादा हों यारब अभी क़र्ज़ मुझको चुकाने बहुत हैं سِن و  سال  میرے  زیادہ  ہوں یا رب  ابھی قرض مجھکو جھکانے بہت ہیں वहीं विषधरों के ठिकाने हैं 'साहिल' जहाँ गौहरों के ख़ज़ाने बहुत हैं  وہیں وشدھروں  کے ٹھکانے ہی...