अधूरा प्यार लघुकथा

लघुकथा: अधूरा प्यार लेखक – आलोक रंजन त्रिपाठी, ज्योतिष एवं वास्तु विशेषज्ञ रात की ठंडी हवा खिड़की से भीतर आ रही थी। मेज पर अधूरी चिट्ठी और बुझता हुआ दीपक उस अधूरे रिश्ते की तरह प्रतीक्षा में था, जो कभी पूरी न हो सका। आर्या ने कई बार सोचा कि वह यह पत्र भेज दे, पर हर बार शब्दों के साथ उसकी आँखें भीग जातीं। कभी वही पत्र उसके प्रेम का प्रतीक था, अब पश्चाताप का साक्षी बन चुका था। आर्या और अर्पित — दो आत्माएँ जो एक-दूसरे के बिना अधूरी थीं, पर समाज की मर्यादाओं और परिस्थितियों ने उनके बीच दीवार खड़ी कर दी। कॉलेज के दिनों का वह सच्चा प्यार, जो किसी कसम या वचन पर नहीं, बल्कि एक सादे विश्वास पर टिका था — वक्त की आँधी में बिखर गया। अर्पित ने आर्या से कहा था, “अगर वक्त ने साथ दिया तो मैं लौटकर ज़रूर आऊँगा।” वक्त तो आया, मगर अर्पित नहीं। उसने अपनी ज़िम्मेदारियों के आगे प्रेम को स्थगित कर दिया। आर्या ने इंतज़ार किया — मौसम बदलते गए, पर उसकी उम्मीद नहीं बदली। सालों बाद, एक दिन मंदिर के प्रांगण में आर्या ने उसे देखा — बाल सफ़ेद, चेहरे पर समय की रेखाएँ, पर वही अपनापन आँखों में झलकता हुआ। दोनों ने एक-दूसरे को देखा, पर कोई शब्द नहीं बोले। शायद अब शब्दों की आवश्यकता ही नहीं थी। मौन ही सब कुछ कह गया — कि प्रेम कभी समाप्त नहीं होता, बस अधूरा रहकर भी पूर्णता का अहसास देता है। अर्पित ने बस इतना कहा, “तुम खुश हो न?” आर्या मुस्कराई — “अब तो हूँ, क्योंकि तुम मिल गए… भले ही देर से।” दोनों ने अपने-अपने रास्ते फिर से पकड़ लिए, पर इस बार कोई दर्द नहीं था। अधूरा प्यार भी कभी-कभी जीवन का सबसे सुंदर अनुभव बन जाता है — जो हमें सिखाता है कि प्रेम पाने में नहीं, निभाने में है। उस रात आर्या ने वही पुराना पत्र जला दिया। राख हवा में उड़ गई, जैसे उसकी अधूरी भावनाएँ भी मुक्त हो गई हों। दीपक फिर से जल उठा — शायद दिल के किसी कोने में अब भी वह प्यार जल रहा था, पर इस बार बिना पीड़ा के, सिर्फ शांति के साथ। “अधूरा प्यार भी पूर्ण हो सकता है, अगर उसमें सच्चाई और त्याग का उजाला हो।”

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