भूत और भ्रम लघुकथा आलोक रंजन
भूत और भ्रम
----------------- लघुकथा
अँधेरी रात और पुरानी हवेली – ये दो चीज़ें थीं जो गाँव के हर व्यक्ति के मन में एक अनजाना डर पैदा करती थीं। इस गाँव का नाम था रामपुर, और पुरानी हवेली गाँव के एक छोर पर बरगद के विशाल पेड़ के नीचे खड़ी थी। कहा जाता था कि हवेली में एक ज़माने में ज़मींदार का परिवार रहता था, जिसने किसी के साथ बहुत बुरा किया था, और मरने के बाद उनकी आत्मा वहीं भटकती है।
गाँव के बच्चे रात होने से पहले ही अपने घरों में दुबक जाते थे। उनकी दादी-नानियाँ उन्हें हवेली के भूतों की कहानियाँ सुनाकर डराती थीं। एक कहानी तो ख़ासकर बहुत प्रसिद्ध थी – हवेली के अंदर एक तहख़ाना है, जिसमें ज़मींदार का ख़ज़ाना छुपा है, लेकिन उस ख़ज़ाने की रखवाली ज़मींदार की भूतनी पत्नी करती है। जो भी रात में उस तरफ़ जाता, उसे अजीब-सी आवाज़ें और परछाइयाँ दिखाई देती थीं।
उसी गाँव में एक युवक था, जिसका नाम था विजय। विजय बाक़ी सब से अलग था। वह पढ़ा-लिखा और तर्कवादी था। उसे भूतों की कहानियों पर ज़रा भी यक़ीन नहीं था। वह हमेशा गाँव वालों को समझाता कि यह सब मन का वहम है, लेकिन कोई उसकी बात नहीं सुनता था।
एक दिन विजय ने गाँव वालों के इस डर को हमेशा के लिए ख़त्म करने का फ़ैसला किया। उसने रात के ठीक बारह बजे हवेली जाने की चुनौती स्वीकार की। गाँव के मुखिया ने उसे बहुत समझाया, "बेटा, भूतों से पंगा मत ले," लेकिन विजय अडिग रहा।
रात हुई। आकाश में घने बादल छाए हुए थे, जिससे चाँद की रोशनी भी ज़मीन तक नहीं पहुँच पा रही थी। विजय अपने हाथ में एक टॉर्च लेकर हवेली की ओर बढ़ा। जैसे ही उसने हवेली के दरवाज़े पर कदम रखा, एक तेज़ हवा चली और दरवाज़ा चरमरा कर खुल गया। अंदर गहरी, भयानक ख़ामोशी थी।
विजय ने टॉर्च जलाकर अंदर देखा। धूल और मकड़ी के जालों से भरी बड़ी-बड़ी कोठरियाँ थीं। हवेली के भीतर की हर आवाज़ बाहर से ज़्यादा गूँज रही थी। अचानक, उसे ऊपर की मंज़िल से कुछ गिरने की आवाज़ आई। उसका दिल ज़ोरों से धड़कने लगा। उसने तर्क दिया, "हो न हो कोई चूहा होगा।"
वह ऊपर की सीढ़ियों की ओर बढ़ा। सीढ़ियाँ इतनी पुरानी थीं कि उन पर पैर रखते ही चरमराहट की आवाज़ आई। ऊपर पहुँचकर उसने देखा – एक कमरा था, जिसका दरवाज़ा आधा खुला हुआ था। टॉर्च की रोशनी में उसे एक परछाई दिखाई दी, जो धीरे-धीरे हिल रही थी।
डर की एक ठंडी लहर उसकी रीढ़ में दौड़ गई। वह जानता था कि वह तर्कवादी है, लेकिन इस माहौल में उसका तर्क कमज़ोर पड़ रहा था। फिर भी, उसने हिम्मत जुटाई और दरवाज़े के पास गया। परछाई फिर हिली। इस बार वह परछाई कुछ बड़ी और डरावनी लग रही थी।
डर के मारे उसके हाथ काँपने लगे, लेकिन उसने आख़िरी बार हिम्मत की और टॉर्च सीधे परछाई पर चमकाई। और फिर जो उसने देखा, उससे उसका डर एक झटके में ग़ायब हो गया। वह परछाई दरअसल कुछ और नहीं, बल्कि एक टूटी हुई खिड़की से आती हवा के कारण हिलते हुए परदे की थी।
नीचे ज़मीन पर एक पुरानी टूटी हुई लकड़ी की कुर्सी पड़ी थी, जिसके गिरने की आवाज़ उसे पहले आई थी।
विजय ने राहत की साँस ली। उसे एहसास हुआ कि गाँव वालों का डर केवल मन का वहम और कहानियों का नतीजा है। वह हवेली से बाहर निकला और गाँव वालों को पूरी सच्चाई बताई। गाँव वालों को यक़ीन नहीं हुआ, लेकिन जब कुछ लोगों ने हिम्मत करके हवेली जाकर देखा, तो उन्हें भी सच समझ आ गया।
उस दिन के बाद, रामपुर गाँव में भूतों का डर ख़त्म हो गया। विजय ने साबित कर दिया कि असली भय बाहर नहीं, बल्कि हमारे अपने मन के अँधेरे कोनों में होता है, जिसे तर्क और साहस की रोशनी से दूर किया जा सकता है।
आलोक रंजन त्रिपाठी
(ज्योतिष एवं वास्तु)
टिप्पणियाँ