, आंखों का स्वप्न प्रेरक कहानी


छोटे से कस्बे में रहने वाले रामलाल और उनकी पत्नी सावित्री के जीवन का एक ही सपना था—उनका बेटा आदित्य बड़ा होकर कुछ ऐसा करे जिससे उनका सिर गर्व से ऊँचा हो जाए। रामलाल एक छोटे दर्जी थे, जो दिन-रात सिलाई मशीन पर झुके रहते, और सावित्री घर-घर जाकर लोगों के कपड़े धोतीं ताकि घर चल सके। गरीबी के बावजूद दोनों ने कभी शिकायत नहीं की, क्योंकि उनके दिल में एक उम्मीद जलती रहती थी—“हमारा बेटा पढ़-लिखकर हमारी तकदीर बदलेगा।”

आदित्य बचपन से ही तेज था। स्कूल में उसके अंक हमेशा अच्छे आते थे। वह कहता, “पिताजी, मैं इंजीनियर बनकर आपके लिए बड़ा घर बनवाऊँगा।” रामलाल मुस्कुराते हुए कहते, “बेटा, तू बस मेहनत कर, बाकी हम पर छोड़ दे।” लेकिन उस मेहनत का बोझ असल में माता-पिता के कंधों पर था।

जब दसवीं के बाद कॉलेज में दाखिले की बारी आई, तो फीस सुनकर रामलाल के चेहरे का रंग उड़ गया। फिर भी उन्होंने कहा, “पैसे की चिंता मत कर, बेटा।” उस रात वे घर से चुपचाप बाहर निकले और अपनी पुरानी सिलाई मशीन गिरवी रख दी। सावित्री ने अपने कानों के झुमके उतारकर पैसे जोड़ दिए। अगले दिन जब आदित्य ने प्रवेश पत्र हाथ में लिया, उसकी आँखों में खुशी थी, पर माता-पिता की आँखों में आँसू।

शहर में पढ़ाई के लिए जाते समय सावित्री ने केवल एक बात कही, “बेटा, जितना बड़ा बने, उतना विनम्र रहना। हमारी मेहनत का सम्मान यही है।” शहर में आदित्य ने खूब मेहनत की, स्कॉलरशिप पाई, और आखिरकार एक बड़ी कंपनी में नौकरी मिल गई। उसका सपना साकार हुआ, पर साथ ही उसके माता-पिता की सेहत गिरने लगी।

कई साल बाद जब वह पहली बार गाड़ी में बैठकर गाँव लौटा, तो देखा—पिता की सिलाई मशीन अब भी कोने में रखी थी, पर अब उस पर धूल जमी थी। माँ की आँखों में कमजोरी थी, पर चेहरे पर वही गर्व की मुस्कान थी। आदित्य ने उनके चरण छूकर कहा, “आज जो कुछ हूँ, आपके त्याग की वजह से हूँ।”

रामलाल ने उसके सिर पर हाथ रखकर कहा, “हमारा कर्तव्य था बेटा, अब तेरा समय है हमें गर्व से भरने का।”

आदित्य ने गाँव में एक स्कूल बनवाया—“रामलाल सावित्री विद्या मंदिर”—और घोषणा की कि यहाँ कोई भी गरीब बच्चा फीस के अभाव में पढ़ाई से वंचित नहीं रहेगा। जब स्कूल की पहली घंटी बजी, तो रामलाल और सावित्री की आँखों से आँसू बह निकले, पर इस बार वे आँसू खुशी के थे।

त्याग का फल आखिर मिल गया था। माता-पिता ने जो अपना सुख, आराम, यहाँ तक कि अपनी ज़रूरतें तक कुर्बान की थीं, वही त्याग अब सैकड़ों बच्चों के जीवन में रोशनी बनकर लौट आया।

संदेश:
माता-पिता का त्याग किसी पर्वत से कम नहीं होता। वे खुद अंधेरे में रहकर अपने बच्चों के जीवन में उजाला भरते हैं। हर सफल संतान के पीछे उनके माता-पिता की अनकही, अनदेखी, पर अमूल्य मेहनत और त्याग छिपा होता है।

आलोक रंजन त्रिपाठी 

टिप्पणियाँ

बेनामी ने कहा…
Bahoot hi Prerna dayak kahani
बेनामी ने कहा…
सच बात है

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मैं और मेरा आकाश

नरेंद्र मोदी कर्मठ कार्यकर्ता से प्रधानमंत्री तक