संदेश

नवंबर, 2024 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सृजन सुगंध साहित्य गोष्ठी

चित्र
आलोक रंजन  सृजन सुगंध साहित्यिक एवं सामाजिक संस्था इन्दौर के साहित्यिक पेज परऑनलाइन गोष्ठी का आयोजन किया गया। जिसमें देश के सभी वरिष्ठ साहित्यकारों को आमंत्रित किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता हरिद्वार से पधारे वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय रमेश रमन जी ने किया। विशिष्ट अतिथि मुंबई से पधारे श्री सागर त्रिपाठी जी विशिष्ट स्थिति छतरपुर दिल्ली से पुष्प लता राठौड़ जी विशिष्ट अतिथि हरियाणा से सोनिया अक्स सोनम जी थी। कार्यक्रम का सुंदर संचालन रायगढ़ छत्तीसगढ़ से अंजना सिन्हा जी ने किया। साहित्य पटल के संस्थापक आलोक रंजन जी ने सभी का आभार माना। गीत और ग़ज़ल की यह संध्या शाम 5:00 बजे से शुरू करके 8:00 बजे तक निर्वाध गति से लगातार चलती रही। ऑनलाइन जुड़े हुए दर्शकों का अपार स्नेह मिला सभी ने अपनी प्रतिक्रिया गीत ग़ज़लों पर खुलकर के दिया कार्यक्रम बहुत सफल रहा 2000 से अधिक दर्शकों ने इस कार्यक्रम को देखा और अपनी प्रतिक्रिया देकर के सृजन सुगंध साहित्य पेज को आशीर्वाद दिया सृजन सुगंध साहित्यिक संस्था समय-समय पर कुछ विशेष विषय पर साहित्यिक मित्रों को आमंत्रित करते रहती है जिसमें देश के वरिष्ठ गीतकार औ...

गीत

चित्र
ये कैसा श्रृंगार नहीं आचार रहा जीवन में रिश्तो का हर मोड़ यहां बेकार रहा जीवन में व्यवहारिक बातों का के हर पहलू में नीरसता छाई पारदर्शिता रही नहीं व्याकुलता मन में क्यों छाई उनसे दूर हुए जिनका उपकार रहा जीवन में ये कैसा,,,,,,, प्रेम कहां अब श्रद्धा से नतमस्तक हो पाता है शिष्टाचार कहां अब दिल में दस्तक दे पाता है अपने अपने स्वार्थ का संसार रहा जीवन में ये कैसा,,,,, कलुषित मन का बोझ लिए मानव फिरता रहता है कैसे करें परिष्कृत मन को यह सोचा करता है नहीं यहां अब अपनों का ही प्यार रहा जीवन में ये कैसा,,,,, आलोक रंजन इंदौरवी

प्रिय हम थे पहली बार मिले

चित्र
*मिलन गीत* प्रिय, हम  थे  पहली  बार मिले ! सूनी   संध्या   एकान्त    पहर  सहसा तुम  दो  पल  गए ठहर  नदी   नदी   तुम   लहर  लहर  नभ   में   तारों  के  दीप  जले .. प्रिय, हम  थे पहली  बार मिले ! बेसुध   यौवन, चंचल  पायल  विस्मित लोचन, छूटा आंचल  अलकों का फैला घन श्यामल  तरु  शाखाओं  के  मौन  तले.. प्रिय, हम  थे पहली  बार  मिले ! विस्मय  विभोर, नीरव  निश्चल  लख  कर  मेरी  वेदना  विकल  झरने  से   उमड़े  नयन  सजल  सपने  आशा  के सुमन  खिले.. प्रिय ,हम थे पहली  बार  मिले..! छबि  उजली  सी  छहर  छहर  आकुल मानस  में  लहर लहर  क्रूर  समय   का   क्रूर  कहर ! सच में थे अंतिम  बार   मिले ? प्रिय, हम थे पहली ...

ज़माने की रविश के साथ तुम बहती नदी निकले।

चित्र
ज़माने की रविश के साथ तुम बहती नदी निकले, बहुत उम्मीद थी तुमसे मगर तुम भी वही निकले। हर इक शय पर वो क़ादिर है अगर उसकी रज़ा हो तो, चराग़ों से उठे ख़ुश्बू गुलों से रौशनी निकले । किसी को बे वफ़ा कहने से पहले सोच भी लेना, कहीं ऐसा न हो इसमें तेरी अपनी कमी निकले। जिसे देखे ज़माना हो गया इस आख़री पल में , नज़र आ जाए वो चेहरा तो दिल की बेकली निकले। जहाँ शीशे का दिल देखा वहीं को हो लिए सारे, तुम्हारे शह्र के पत्थर बड़े ही पारखी निकले । वफ़ा की राख दरिया में बहा आओ कि फिर उसमें, कहीं ऐसा न हो फिर कोई चिंगारी दबी निकले। शिखा नक़्क़ाद के मीज़ान पर थी जब ग़ज़ल मेरी, रदीफ़ ओ क़ाफ़िया औज़ान सब बिल्कुल सही निकले। दीपशिखा-

दर्द की चादर लपेटे सो रहा है आदमी

चित्र
दर्द की चादर लपेटे, सो रहा है आदमी। आँख में आँसू नहीं पर, रो रहा है आदमी।। अब तो बोझिल हो गए हैं, दर्द के रिष्ते सभी, बोझ रिष्तों का मगर, क्यूँ ढो रहा है आदमी। जिस्म तो बेदाग है, पर रूह मैली हो गई, दाग दिल के आँसुओं से, धो रहा है आदमी। नफ़रतों का ज़हर देता है, दवा के नाम पर, खुद की राहों में ही काँटे, बो रहा है आदमी। आज के इस दौर में बस चन्द सिक्कों के लिए, दौलत-ए-ईमान अपनी खो रहा है आदमी। - गोविन्द भारद्वाज, जयपुर Mob- 9214054053

इस ज़मीं पर चांद को तुम क्यूं बुलाना चाहते हो। आलोक रंजन इन्दौरवी

चित्र
इस ज़मीं पर चांद को तुम क्यूं बुलाना चाहते हो। जिसका सर ऊंचा है उसको क्यूं झुकाना चाहते हो।। तुम कभी तफ्तीश से पूरी कहानी सुन तो लो। गुफ्तगू के सिलसिले को क्यूं मिटाना चाहते हो।। फ़र्ज़ तुम अपना निभाओ और बातें छोड़ दो। बेवजह  झगड़े की सूई क्यूं घुमाना चाहते हो।। हर क़दम तेरा ज़मीं पर हो इसे तुम देखना । शान झूठी इस जहां को क्यूं दिखाना चाहते हो।। हर ख़ताएं तो तुम्हारी डायरी में दर्ज हैं । रोज़ ही उस पर ज़िरह फिर क्यूं कराना चाहते हो।। बांटकर के जिम्मेदारी काम कुछ हल्का करो। अपने सर पे बोझ ज्यादा क्यूं उठाना चाहते हो।। आलोक रंजन इन्दौरवी

ओ मेरे अनथके सपन तुम युग का परिवर्तन बन जाना।

चित्र
*निर्मल गीत* ओ मेरे अनथके सपन तुम,युग का परिवर्तन बन जाना ! कितने  स्वप्न  हो  गए  खण्डित, कितनों   की   दी   गई   दुहाई. कुछ   सो    गए  अबोले  भोले,  कुछ  ने   रो  रो   रात   बिताई.. कफ़न बांधकर  निकलो तो,युग का संघर्षण बन जाना ! ओ मेरे अनथके सपन ....! जिन्हें  विरासत  मिली  दुखों की,  सुख   की  परिभाषा  क्या  जानें? सीमित   जिनकी    अभिलाषाएं,  हामिद– चिमटा   लगे     सुहाने. तुम  सूखे  प्यासे  प्राणों  में,सुख का संवर्धन बन जाना ! ओ मेरे अनथके सपन....! प्रीति   बिक   रही   बाजारों  में,  जिसको   देखो,  हुआ  दिवाना. भीतर     बाहर,    आँखें   मींचे   बुने    निराशा    ताना    बाना. तुम आशा के दीप जलाकर,...